यह किताब पुरानी लगती है
वक्त की स्याही से लिखी गीता जैसी
बाबू जी की हर बात रुहानी लगती है।
धूल की धुंध से सन जैसी
मौन गुमसुम सी इबादत लगती है
पन्नो पर लिखी तजुर्बे की इबारत जैसी
बाबू जी की हर सांस आईना सा लगती है
कुंदन, सोने को करती आग जैसी
पन्ना पन्ना फैसलों की दावत लगती है
जिंदगी मील का पत्थर हो जैसी
बाबू जी की हर चाह राह दिखाती लगती है
पन्नो पर पडी लकीरें जैसी
गुजारिश सी करती लगती है
अदीब गुफतुगु से सजी जैसी
बाबू जी की नजर जियारत सी लगती है।
Sandeep khosla
अदीब -विद्वान
No comments:
Post a Comment