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Tuesday, 28 April 2015

भुकंप

भूगोल ही बदल दिया,

भूगर्भ से आए जलजले ने,

दीवारें सब गिर रही थी,

कंपकपाई जब धरती थी,


चारों तरफ खुन ही खुन था।

माटी भी  हुई लाल थी,

मलबे मे जो दबे थे,

ना वो हिन्दू ना मुस्लमान थे,

इनसान बिलख रहे थे, पल पल मर रहे थे।


दुध की इक बुंद को बच्चे तरस रहे  थे,

माऔ की गोदी मे लाल बिलख रहे थे।


यहां धुल के बवंडर उठ रहे थे,

वहां वीरानो मे धुएं जल रहे थे।


साथ ना जाने कितनो के छूटे थै,

राख और खाक कई हो गये थे।


धरती जब कांपी  थी,रिश्ते बिखर गए थे,

साथी ना जाने  कितनो के बिछड गए थे।


यह पहले भी हुआ  है  शायद आगे भी होगा,

जलजले भुंकप आते रहे गे।

माटी  से तु बना, उमीदो पर खडा है,

इनसान गिर कर कई बार उठा है।

मालिक को मंजूर यही था,

यह जानकर मानकर आगे बढा चल।












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